माता-पिता की ओर हमें प्रेम की खिड़कियां हमेशा खुली रखनी होंगी. असहमति के बाद भी, नाराज होने का हक उन्हें देना ही होगा।

माता-पिता की ओर हमें प्रेम की खिड़कियां हमेशा खुली रखनी होंगी. असहमति के बाद भी, नाराज होने का हक उन्हें देना ही होगा.

हम प्रेम और निर्णय को अक्सर एक-दूसरे में मिलाते रहते हैं. एक-दूसरे से असहमत होने का अर्थ, प्रेम में कमी नहीं है. अपनी-अपनी दुनिया बड़ी होने के साथ हमारे नजरिए, दृष्टिकोण में भिन्नता स्वाभाविक है. इसे प्रेम से जोड़ना सहज नहीं है.

भोपाल से ‘जीवन संवाद’ के सुधि पाठक अजय दुबे लिखते हैं, ‘मैंने पिताजी के अनुसार अपना कैरियर नहीं चुना. विवाह भी मैंने उनकी पसंद के अनुरूप नहीं किया. इससे उनके-मेरे बीच दीवार खड़ी हो गई. हम सब एक ही बड़े घर में रहते हैं, हमारे मन के बीच लंबी-चौड़ी खाई है. हम दोनों के बीच पांच बरस से बातचीत, संवाद बंद है.’

हमारे समाज में आज्ञा को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि उसमें स्वतंत्र निर्णय का अक्सर खयाल नहीं रखा जाता. यही वजह है कि हम बदलते समय, समाज के अनुरूप अपने घर परिवार को ‘सहज’ नहीं रख पा रहे.
उनका कोई विकल्प नहीं है. हमारे लिए उनसे बढ़कर किसी के मन में भी प्रेम नहीं है. इसलिए हमें प्रेम की खिड़कियां उनकी और खुली रखनी होंगी. नाराज होने का हक उन्हें देना ही होगा. नाराजगी को प्रेम से अलग रखना होगा.

यह जीवन की बहुत सरल सहज सीख है, मेरे जीवन में ऐसे अनेक लोग हैं, जिनसे निर्णय के स्तर पर असहमति है, लेकिन हमने उसे कभी प्रेम की रुकावट नहीं बनने दिया. इसे प्रयोग की तरह करके देखिए. यह बहुत शुभकारी है.

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